गाँव से शुरू हुआ एक असंभव सपना
यह कहानी है उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में जन्मे महेश की। उनका जन्म एक बहुत ही साधारण परिवार में हुआ था – उनके पिता गाँव में धोबी का काम करते थे और उनकी माँ घर की देखभाल करती थीं। परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि कभी-कभी एक वक्त का खाना भी पूरा नहीं हो पाता था। लेकिन इन परिस्थितियों के बावजूद महेश के सपने आसमान छू रहे थे।
उन्होंने गाँव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ना शुरू किया, जहाँ न तो उचित शिक्षक थे और न ही पूरी किताबें। लेकिन महेश पढ़ाई पर इतना ध्यान केंद्रित करते थे कि वे टूटी हुई फर्श पर बैठकर भी कक्षा में अव्वल आते थे। उनके पिता की कड़ी मेहनत और माँ की प्रेरणा ने उन्हें हमेशा पढ़ाई के प्रति उत्साहित रखा। जब वे आठवीं कक्षा में थे, तब उन्होंने पहली बार “IAS अधिकारी” शब्द सुना था। गांव के एक बुजुर्ग ने उन्हें बताया कि ये ही देश चलाने वाले अफसर हैं। उसी दिन महेश ने ठान लिया कि एक दिन वह भी आईएएस बनेंगे।
मुश्किलों को पार कर हासिल की सफलता
महेश ने हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की पढ़ाई गांव से की, लेकिन 12वीं के बाद उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना पड़ा। उनके पिता ने खेत बेचकर उनका एडमिशन सरकारी कॉलेज में करा दिया। वहीं रहकर उन्होंने ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की। ग्रेजुएशन के दौरान उन्होंने UPSC सिविल सर्विसेज के बारे में विस्तार से जाना और तैयारी शुरू कर दी।
पैसों की कमी के कारण वह किसी कोचिंग संस्थान में नहीं जा सके। उन्होंने पुराने नोट्स, मुफ्त ऑनलाइन लेक्चर और सरकारी लाइब्रेरी की किताबों से पढ़ाई की। दिन-रात कड़ी मेहनत और संसाधनों की कमी के बावजूद उनका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटा। उन्होंने हर असफलता को सबक के तौर पर लिया और आगे बढ़ते रहे।
पहले प्रयास में वह यूपीएससी प्रीलिम्स तक पहुंचे लेकिन मेन्स में फेल हो गए। दूसरे प्रयास में वह मेन्स पास कर गए लेकिन इंटरव्यू में असफल रहे। तीसरे प्रयास में जब वह इंटरव्यू देने गए तो उनके जवाबों में गांव की मिट्टी की खुशबू और जमीन से जुड़ी सोच झलक रही थी। यही सोच उन्हें देश के टॉप 100 रैंक होल्डर्स में ले आई। महेश का चयन आईएएस अधिकारी के रूप में हुआ।
जब रिजल्ट आया तो पूरे गांव में जश्न का माहौल था। जिस बच्चे को स्कूल के लिए कभी चप्पल भी नसीब नहीं हुई, वह आज देश के सबसे प्रतिष्ठित पद पर पहुंच गया था। उसके पिता की आंखों में गर्व और आंसू दोनों थे। उन्होंने कहा, “मैं तो धोबी था, लेकिन मेरा बेटा देश को बेहतर बनाने निकल पड़ा है।”
महेश की इस सफलता ने गांव के बच्चों में नई उम्मीद भर दी। वह अब हर रविवार को गांव के गरीब बच्चों को पढ़ाता है और उन्हें बताता है कि चाहे परिस्थितियां कैसी भी हों, मेहनत का कोई विकल्प नहीं है।
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